Sunday, October 25, 2009

आदिवासी-पंडित
-गिरिश पंकज
विक्रमार्क फिर भागा वेताल के पीछे और उसे कंधे पर लाद कर आगे चलने लगा। बेताल ठहाके लगा रहा था और विक्रमार्क हमेशा की तरह भाव-शून्य चेहरे के साथ बढ़ा जा रहा था। विक्रमार्क की ओर से कोई प्रतिक्रिया न देख कर वेताल बोला-’’राजन, तुम कई बार मुझे उस नेता की तरह लगते हो, जो बार-बार चुनाव हारता है, लेकिन हर बार इसी भरोसे में चुनाव लड़ता है कि इस बार वह जरूर जीतेगा। और वह जीतता भी है। मैं तुम्हारी सहन-शक्ति को प्रणाम करते हुए इस बार एक नेता की कहानी सुनाता हूँ। उम्मीद है कि तुम्हारा मनोरंजन होगा और थकान का अहसास भी नहीं होगा।’’ विक्रमार्क चुपचाप चला जा रहा था। जैसे वेताल की बात सुन ही न रहा हो। वेताल मुस्कुराते हुए शुरू हो गया, ‘‘हे राजन, किसी प्रदेश में एक पंडितजी रहा करते थे। वे बड़े लोकप्रिय व्यक्ति थे। उनके पिता भी पंडिताई किया करते थे। पिता के निधन के बाद युवा पंडित भी पूजा-पाठ के सहारे जीवन-यापन करने लगा। पंडित वैसे तो एक श्लोक भी शुद्ध नहीं बोल पाते थे, लेकिन उन्हें टोकने वाला कोई न था। संस्कृत किसी को समझ मंे भी नहीं आती थी। अधिकांश लोग अपनी राष्ट्रभाषा ताक तो ठीक से नहीं बोल पाते थे। हाँ, आक्रमणकारी भाषा से उन्हें बड़ा लगाव था। आए न आए, गिटपिट-गिटपिट जरूर करते थे। इलाके के इकलौते पंडित होने के कारण उनका जलवा था। हर कहीं उनकी पूछ-परख थी।’’ ‘पंडितजी दिन में पंडिताई कर चोला धारण करके कर्मकांड करवाते और रात को पैंट-शर्ट पहनकर कुकर्म कांड मंे लिप्त हो जाते थे। किसी ढाबे में जाकर मांस खाते, तो किसी बार में मदिरा पान करते। सुंदरी-फुंदरी के चक्कर में रहते, सो अलग। मांसहार के पीछे उनका एक तर्क था, जिसके कारण उन्हें, पंडित हो कर भी मांस खाने में कभी ग्लानी नहीं हुई। सुरा-सुन्दरी के शौक के कारण भी वे पेरशान नहीं हुए, कि नर्क भोगना पडे़गा। वे इस मामले में बड़े ‘कांफिडेंट’ थे कि मरने के बाद वे सीधे स्वर्ग-लोक ही जायेंगे।’’ ‘राजन एक बार की बात है। राज्य में चुनाव हो रहे थे। जाति-धर्म के आधार पर प्रत्याशियों का चयन हो रहा था। पंडितजी को पता चला, तो वे भी जोर आजमाइश करने लगे। पंडितजी को यह बात अच्छे से पता थी कि जीवन का सच्छा सुख राजनीति में ही है। वे चाहते थे कि किसी तरह से टिकट मिल जाए। इसलिए वे राजनीतिक माफियाओं के चक्कर लगाने लगे।’ एक पार्टी के सरगना ने कहा, ‘‘पंडितजी, आपको टिकट देने में कोई एतराज नहीं है। आप तो बड़े पाॅपुलर आदमी हैं। लेकिन आप तो जानते हैं कि सारा खेल आरक्षण का है। यह सीट आदिवासी के लिए आरक्षित है। आप ठहरे पंडित। आपको टिकट देने का तो सवाल ही पैदा ही नहीं होता।’’ पंडितजी मुस्करा कर बोले, ‘‘ऐसा है भोले, पेशे से पंडित जरूर हूँ, लेकिन मैं मूलतः आदिवासी हूँ। मेरे दादा, परदादा और उनके भी परदादा, सबके सब पिछले पाँच सौ सालों से यहीं निवास कर रहे हैं। तो, हम हुए न आदिवासी।’’ सरगना हँस कर बोला, ‘‘लेकिन इससे बात नहीं बनेगी। हमे जंगल में रहने वाले आदिवासी चाहिए।’’ पंडितजी बोले, ‘‘मैं स्वभाव से जंगली रहा हूँ। कहंे तो टेªलर दिखाऊँ। एक-दो ‘सी, डी’ भी बनावा कर रखी है।’ सरगना फिर हँसा, ‘‘इससे तो पार्टी की बदनामी होगी। हम ठेठ आदिवासी चाहते हैं।’’ पंडितजी बोले, ‘‘मैं ठेठ आदिवासी हूँ, भई। इसका प्रमाण है मेरे पास। मेरे पिता भविष्य-द्रष्टा थे। वे जानते थे कि कलजुग में ऐसी नौबत आ सकती है। इसलिए वे मरने से पहले आदिवासी बन गए थे। उन्होंने अपनी जाति परिवर्तित करा ली थी। यह सोचकर कि अगर बेटे की नौकरी करने की इच्छा हुई, तो उसे आरक्षण का लाभ मिल जाएगा, वरना पंडिताई तो जिन्दाबाद है ही। मूल आदिवासी तो बेचारा सीधा-सादा होता है। नकली या ‘कनवर्टेड’ आदिवासी बड़ा चालू होता है, क्योंकि वह आदिवासी नहीं होता न! उसमें मक्कारी, बेईमानी, धोखेबाजी, खुराफात समेत नाना प्रकार की बदमाशियाँ बरकरार रहती हैं। अपनी इन्हीं प्रवृतियों के कारण वह सफल भी हो जाता है। मैं भी नकली आदिवासी हूँ, और ये अंदर की बात है, जो सिर्फ आप को बता रहा हूँ। आप तो मुझे टिकट दे दें। देखिए, मैं चुनाव कैसे जीतता हूँ।’’ सरगना को लगा, पंडित की बातों में दम है। बात हाइकमान तक पहुँची। पंडितजी टिकट पा गए। चुनाव हुए। पंडितजी ने खूब हाथ-पैड़ मारे, लेकिन होनी में तो कुछ और ही लिखा था। पंडितजी हार गए। जमानत जब्त हो गई सो अलग। उनके जीवन का एक सुनहरा अध्याय खुलने से पहले ही बंद हो गया। हे राजन, अब तुम मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दो कि आखिर पंडितजी चुनाव क्यों हार गए? मांसहार के पीछे पंतिडतजी का तर्क क्या था? और सुरा-सुंदरी के आदी होने के बावजूद वे इस बात को लेकर निश्चिंत क्यों थे कि मरने के बाद वे सीधे स्वर्ग-लोक ही जायेंगे? सोच-समझकर बिलकुल सही उत्तर देना, वरना तुम्हारे सिर के टुकडे़-टुकड़े हो जाएंगे। वेताल की कहानी सुन कर विक्रमार्क वैसे भी बेचैन हो उठा था। फिर उत्तर देना उसकी मजबूरी भी थी, इसलिए इसने कहना शुरू किया, ‘‘आदिवासी होने का प्रमाण-पत्र पास होने के कारण पंडितजी टिकट हथियाने में तो सफल हो गए, लेकिन वे इस बात को भूल गये थे कि चुनाव केवल जाति-धर्म के आधार पर ही नहीं लड़े जाते। उसके लिए पैसे भी खर्च करने पड़ते हैं। लाखों, करोड़ों। पंडितजी ठहरे फटेहाल। जो कुछ भी कमाते थे, वह तो पीने-खाने में ही खर्च हो जाता था। हाइकमान ने भी उन्हें अंगूठा दिख दिया। जितने पैसे मिलने की उम्मीद थी, उतने भी नहीं मिले। पंडितजी का प्रतिद्वंद्वी भी नकली आदिवासी था, लेकिन वह बहुत पैसे वाला था। उसके पास बाप-दादाओं की अकूत बेनामी संपत्ति थी। उसके अनेक गोरख-धंधे भी थे। उसने पैसा पानी की तरह बहाया। धुंआधार प्रचार किया। शराब बाँटी। पैसे बाँटे। कपड़े-लत्ते बाँटे। मीडिया को भी मैजेज किया। बस, उसके पक्ष में ऐसा वातावरण बना कि वह रिकाॅर्ड मतों से जीत गया, और बेचारे पंडितजी की जमानत जब्त हो गई। रही बात मांसहार के तर्क की, तो पंडितजी को किसी ने यह ज्ञान दे दिया था कि मुर्गा-बकरी, तीतर-बटेर आदि खाने से प्राकृतिक संतुलन बना रहता है। अगर मनुष्य मांस भक्षण न करे, तो चारों तरफ पशु-पक्षियों की भरमार हो जाएगी। इसलिए प्राकृतिक संतुलन को जो काम पशु-पक्षी खुद कर लेते हैं, उसकी ठेकेदारी पंडितजी जैसे अनेक मनुष्यों ने ले ली थी। इसका एकमात्र कारण था, जीभ का पाशविक स्वाद। इस स्वाद को लेने के लिए पंडितजी मांस भक्षण को पुण्य-कार्य मानते थे। उनकी यही ज्ञान भी बाँटा गया था कि पूजा-पाठ करने से सारे गलत-सलत काम धुल जाते हैं और अंत काल में खुद भगवान हाथ जोड़कर कहते हैं कि आओ वत्स, तुम्हारे लिए स्वर्ग के द्वार खुले हुए हैं।’’ विक्रमार्क का मौन भंग होेते हो चुका था। यह देाख कर वेताल ठहाका लगा कर उड़न छू हो गया। यानी फिर डाल पर।
माहात्मा गांधी के आर्थिक विचार

नागेन्द्र प्रसाद


दो अक्तूबर 1869 को उस महापुरुष का जन्म पोरबन्दर में हुआ, जिन्होंने भारत माता को गुलामी की जंजीर से मुक्त कर आजाद कराया। इनकी प्रारंभिक शिक्षा भारत तथा उच्च शिक्षा इग्लैंड में हुई। बैरिस्ट्री पास कर भारत आए, तो देश सेवा एवं समाज सेवा में लग गए। गांधीजी के नेतृत्व में देश आन्दोलित हुआ और अहिंसा परमो धर्मः के रास्ते पर चलकर भारत ने दुनिया को एक नई दृष्टि दी। गांधीजी के ऊपर विभिन्न धर्मों एवं संतों का व्यापक प्रभाव पड़ा। उन्हांेने ईसाई धर्म से प्रेम और सेवा का पाठ सीखा, तो जैन धर्म से अहिंसा ग्रहण की।

उसी प्रकार हिन्दू धर्म की आध्यात्मिकता उनका जीवन आधार था। गांधीजी पर आधुनिक भारत के रानाडे, गोखले, तिलक, टालस्टाय तथा रस्किन का प्रभाव पड़ा। माहात्मा गांधी अपने आप में कई व्यक्तित्व से भरे पड़े थे। वे एक महान राजनीतिज्ञ, विचारक, संत एवं अर्थशास्त्री थे। गांधी क ेविचार भारतीय आचार-विचार एवं यहाँ के परिस्थितियों के आधार पर अवलम्बित थे। उन्होंने सबसे पहले ग्राम स्वाराज की बात कही। उनका तक था कि अर्थव्यवस्था में गाँवों की प्रधानता हो। गाँव एक परिवार सा हो, उसे कोई भेद-भाव न रहे। परस्पर वे एक दूसरे की सहायता करे तथा प्रत्येक की समस्या को सबकी समस्या समझकर समाधान करें। उन्होंने श्रम के महत्व को विशेष बल दिया। गांधीजी के अनुसार श्रम अत्यंत ही पवित्र वस्तु है। कोई कार्य छोटा नहीं होता, प्रत्येक व्यक्ति को चाहे वह कितना ही महत्वपूर्ण व उचे पद पर क्यों न हो उसे घंट दो घंटा शारीरिक श्रम अवश्य करना चाहिए। देश के चहुमुखी विकास के लिए जहाँ बुुद्धिबल की आवश्यकता है उससे कहीं अधिक श्रम बल की आवश्यकता है। देश को आत्मनिर्भर बनाना उनका एक महत्वपूर्ण लक्ष्य था। इसके लिए उन्होंने कहा था, ‘‘हमें अपनी आवश्यकतओं की पूर्ति स्वयं करनी चाहिए। किसी भी देश के भरोसे, अपनी अर्थव्यवस्था को कदापि टिकाए नहीं रह सकते।’’ गांधीजी हमेशा कहा करते थे कि यदि लक्ष्य पाक-साफ है, तो उसे प्राप्त करने का साधन भी उतना ही पवित्र होना चाहिए। दूषित साधन से पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। उनके अनुसार सत्य की स्थापना असत्य द्वारा, अहिंसा की हिंसा द्वारा तथा प्रेम की घृणा द्वारा नहीं की जासकती है। यदि हम हिंसा से अहिंसक समाज लाना चाहते हैं, तो यह संभव नहीं है, क्यों कि इससे हिंसा का ही महत्व समाज में बढ़ता है। ‘गांधीजी ट्रस्टीशीप’ का सिद्धांत दिया। उनकी राय में धन समाज का है, व्यक्ति का नहीं। जो धन जब तक व्यक्ति के पास है, उसका नियंत्रणकत्र्ता एंव देख-रेख व प्रयोग करने वाला है। व्यक्ति को उससे आसक्त नहीं होना चाहिए। यदि उस सिद्धांत को मान लिया जाता और समाज में आर्थिक गैर बराबरी नहीं रहती, तो आज उग्रवाद सर चढ़कर नहीं बोलता। गाधीजी यंत्रीकरण के विरोधी थे, क्योंकि भारत में श्रम का बहुतायत है। इस संदर्भ में उन्होंने लिख है कि ‘मशीने’ आधुनिकक सभ्यता का प्रतीक हैं और एक बडे़े पाप का प्रमाण है। उन्होंने यह भी कहा था कि यदि काम करने वालों की कमी हो, तो मशीनें अच्छी मानी जा सकती हैं, परन्तु यदि काम करने वाले आवश्यकता से अधिक हो, तो मशीनें खराब हैं। गांधीजी छोटे उद्योग धंधे को अधिक महत्वपूर्ण समझते थे। उनका मानना था कि भारत जैसे विशाल देश में लघु उद्योग के बिना रोजगार की समस्या हल भी नहीं हो सकती है। उद्योग के लिए पूंजी और श्रम आवश्यक साधन है। जिन देशों में श्रमशक्ति का अभाव है, वे उद्योग धंधों में अधिक पूंजी तथा श्रम कम लगाना चाहेंगे। लेकिन भारत की स्थिति उससे ठीक विपरीत है। गांधीजी सर्वोदय के समर्थक थे। उसमें गरीब और दलित व्यक्तियों को सबसे पहले उठाने का प्रयास करना है। सर्वोदय का आधार आध्यात्मिकता है। यह ईश्वर तथा आत्मा में आस्था रखता है। परन्तु यह आधार दुराग्रह एवं कट्टरता से मुक्त है। प्रत्येक धर्म को मानने वाले यहाँ तक कि नास्तिक के लिए सर्वोदय के मंच पर स्थान है। गांधीजी के अनुसार सत्य ही ईश्वर है। सत्य साध्य है तथा अन्य सब चीजें साधन हैं। साधन को पवित्र बनाने के लिए अहिंसा प्रथम सिद्धांत और प्रेम दूसरा। इस प्रकार गांधी के दर्शन का मूलमंत्र सत्य, अहिंसा और प्रेम था। तभी तो प्रसिद्ध लेखक रामा रोलांड ने गांधीजी को आधुनिक ईसामसीह कहा था
पिफरंगिया कहता है!
लंदन से -विजय कुमार शुक्ला
मुम्बईया: - हेल्लो सरजी , लन्दन का क्या हालचाल है? फिरंगिया:- एकदम ठीक है .बम्बई ...अर्र मेरा मतलब मुंबई का क्या हाल चाल है ? मुम्बईया: - एकदम मजे में है. अभी राज ठाकरे ने करन जोहर से माफी भी मंगवा ली है...।ं फिरंगिया: - हां सुना है..गांधीजी के जन्मदिवस पर करन जोहर ने माफी मांग के राज ठाकरे का क्रोध शांत कर दिया अन्यथा बेचारे राज ठाकरे को क्रोधित होना पड़ता और उनके कार्यकार्तओं को तोड़ फोड़ करना पड़ता ...बेचारों को बेवजह धरना प्रदर्शन की तकलीफ से बचा लिया। मुम्बईया: - हम्म, अच्छा हुआ बेचारे माइकल जैक्सन ने कभी मुंबई को बम्बई नहीं कहा होगा ,नहीं तो वो भी यहाँ आकर राज ठाकरे के साथ फोटो खिंचवाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं कर पता. माइकल जैक्सन से याद आया.. ओबामा ने गांधीजी के बारे में कुछ कहा था...। फिरंगिया: - हां, एक स्कूल के फंक्शन में किसी बच्चे ने उनसे सवाल किया कि वो किस इतिहास पुरुष के साथ भोजन करना पसंद करेंगे? तो ओबामा ने जवाब दिया गाँधी, क्यूंकि वो उन्हें अपना हीरो मानते हैं, जिन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह से विश्व के सबसे बड़े साम्राज्य कि नीवे हिला दी। मार्टिन लूथर किंग ने भी गाँधी से प्रेरणा ले कर अमेरिका में अश्वेतों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया था। अगर गाँधी नहीं होते तो शायद अमेरिका में भी सामाजिक भेदभाव अभी भी होता. मुम्बइया: - हां यार कितने गर्व कि बात है ना हमारे लिए.और इंग्लैंड में गाँधी जी के बारे में लोग क्या सोचते है। फिरंगिया: - हा हा हा ..यहाँ तो अभी पिछले दिनों एक सर्वेक्षण हुआ जिसमे लोगो से विंस्टन चर्चिल और गांधीजी के बारे में लोगो से राय मांगी गयी तो लगभग 47 प्रतिशत लोगो के हिसाब से ये काल्पनिक पात्र थे. जबकि शेर्लोक होम्स एक सचमुच का मनुष्य ....। मुम्बइया: - इसमें हंसने कि क्या बात है यार, कुछ दिनों में भारत में भी यही होगा। लगता है अलबर्ट आइन्सटाइन कि भविष्यवाणी सच हो रही है...। फिरंगिया: - क्या कहा था आइन्स्तैन ने? मुम्बईया: - यही कि आने वाली पीढ़ियाँ ये शायद ही स्वीकार करेंगी कि हाड़ मांस में गाँधी जैसा कोई व्यक्ति इस संसार में सचमुच था....। फिरंगिया: - तो आइन्स्तैन ने यह बात पहले ही भांप ली थी? हाँ और सच भी है... सुनकर और पढ़कर अजीब ही लगता है कि कोई आदमी सिर्फ अहिंसा और सत्याग्रह और बिना किसी युद्ध के ब्रिटिश साम्राज्य को खत्म कर दे...। कहानी ही तो लगती है...यदि आज मुंबई में कोई गाँधी अनशन पर बैठ जाए..उत्तर भारतियों के साथ हो रहे भेदभाव पर...जैसा गांधीजी ने साउथ अफ्रीका में भारतियों के साथ हो रहे भेदभाव पर किया था, तो क्या वहां के गुंडे ब्रिटिश सरकार कि तरह सच्चाई के आगे झुकेंगे या गोडसे कि तरह आके उसे गोली मार देंगे? मुम्बईया: - मुझे तो लगता है वो आधुनिक गाँधी पहले ही मार दिया जाएगा..., जैसा कुछ वर्षों पहले 1998 में एक सामाजिक कार्यकर्ता सफदर हाश्मी को दिल्ली कि सड़कों पर खुलेआम कांग्रेसी कार्यकार्तओं ने पीट-पीट कर मार डाला था..., जब वो अपने नुक्कड़ नाटक ‘‘हल्ला बोल’’ का मंचन कर रहे थे। फिरंगिया: - हाँ यार, उस केस का क्या हुआ? मुम्बईया:- हाँ, उस केस में दस लोगों को 2003 में गाजियाबाद कोर्ट ने सजा सुनाई, जिसमे कांग्रेसी नेता मुकेश शर्मा भी है...। फिरंगिया: - ओह! तो अब तो उन लोगों ने हाई कोर्ट में अपील कर दी होगी..., जो कि 10 साल और लेगी...। फिर सुप्रीम कोर्ट जो कि 10 साल और..., तबतक वो लोग जमानत पर घूमते रहेंगे..., और बुढापे में उनकी प्राकृतिक मृत्यु के बाद उनकी सजा पर मुहर लगेगी...। इसका मतलब यह हुआ कि अंग्रेज सरकार हमारे समाज और सरकारों से ज्यादा सहनशील और न्यायप्रिय थी? सच ही तो है... हर वर्ष हजारों लोगों को शरणार्थी का दर्जा देती है और उन्हें नगरिक भी बना देती है..., जैसे कि श्रीलंकन तमिल, अफगानी, सोमालियन, बंगलादेशी, नेपाली, पाकिस्तानी... लगभग दुनिया के हर देश के लोग यहाँ शरणार्थी बन कर आ रहे हैं और वो ही अधिकार पाते है, जो कि यहाँ के मूल नागरिकों के हंै...। फिर यहाँ धरना प्रदर्शन भी देते हंै..., जैसे कि अभी कई तमिलों ने यहाँ के संसद भवन के सामने लगभग 3-4 महीने तक लगातार धरना दिया था, जिससे कि कामकाज काफी प्रभावित हुआ था। मुम्बईया: - ...और वो धरना किस लिए था? क्या अंग्रेज सरकार तमिलों से भेदभाव करती है....। फिरंगिया: - नहीं यार, वो तो श्रीलंकन सरकार के विद्ध था। मुम्बईया: - और वहां की जनता ने इसका विरोध नहीं किया? फिरंगिया: - नहीं...। मुम्बईया: - ओह ..इसका मतलब उनका समाज और उनकी सरकार हमसे ज्यादा सहनशील है? फिरंगिया: - हाँ...। मुम्बईया: - तब तो शायद अगला गाँधी पश्चिम में ही पैदा होगा....। फिरंगिया: - कहीं भी हो...कुछ सालों बाद उसकी भी जन्मशती मनाई जायेगी..लोग फूल माला अर्पण करेंगे.. भाषण देंगे.बात खत्म..।. चल यार मैं अब ऑफ लाइन हो जाता हूँ..। बड़ी अच्छी मूवी आ रही है टीवी पर...। मुम्बईया: - कौन सी? फिरंगिया: - मैं इंतकाम लूंगा ....इसमे धर्मेन्द्र अपने पिता के हत्यारों को चुन चुन कर कुत्तों की मौत मारता है....अच्छा फिर बात होगी...। ऑनलाइन आउंगा जल्दी ही...। मुम्बईया: - ठीक है ,मैं भी कोई बढिया मार धाड़ वाली हॉलीवुड की मूवी देखता हूँ.... बाय ...।
करेजवा में तीर
‘‘का ठाकुरजी! झारखंड के का हाल-चाल है? ठीके चल रहा है न?’’ हरिशंकर बाबू व्यंग्य मारते हुए बोले। ठाकुरजी मुँह टेढ़ा करते हुए बोले, ‘‘ठीके और खराब से का मतलब है, आपका। सड़ल तालाब मंे इ काना में नहाइए चाहे उ कोना में। देहवा तो कहीं भी नोचेगा। एही हाल है, झारखंड का और का। ड्राइवर केतनो बदल दीजिए खटारा गाड़ी खटारे चलेगा।दनदनाएल कहाँ से चलेगा। झारखंड से जादे उम्मीद मत लगाइए।’’ सिगरेट का कस खीच कर गोल-गोल छोड़ते हुए तिवारीजी बोले, ‘‘आपलोग को तो खिलाफ बोलने का आदत पड़ गया है। देख नहीं रहे हैं विकास के काम में तेजी कितना हो गया है। डीसी साहेग से लेकर बीडीओ साहेब तक परेशान हैं। अपने स्टाफ को दौड़ा रहे हैं। गाँवे-गाँव। ले ले भइया लेले भइया। कुछ लेले। हमरा नौकरी बचा ले। गाय, बकरी कुछ लेले। कुछ नहीं तो राशन दूकान ही लेले।’’ ठाकुरजी बीच में ही बोल पड़े, ‘‘हम कुछ बोलेंगे, तो आप को अच्छा नहीं लगेगा। अरे घानी में जइसे बैल को दिन भर लगाया जाता है, पर रहता है ओतने दूर में। वही हाल है, झारखंड के हाल। वही ढाक के तीन पात।’’ हरिशंकर बाबू से रहा नहीं गया, बोले, ‘‘अब चाहे जो कह लीजिए। झारखंड में टू-इन-वन शासन चल रहा है। एने स्वीच करिएगा, तो महामहिम चैनल उधर स्वीच करिएगा, तो सुबोध भइया चैनल। मइयाजी खुश होके एगो विज्ञापन वाला विभाग दे दिये है, उ विभाग में कोई काम थोड़े है, सो विज्ञापन बाँटते हैं। बदले में खुब छपते हैं और पड़ल रहते हैं महामहिम के यहाँ। समझ लीजिए झाखंड दो सीम वाला मोबाइल है। एगो सुबोध सीम दूसरा महामहिम सीम।’’ तिवारीजी सहमत होते हुए बोले, ‘‘हरिशंकर बाबू बतवा तो ठीके बोलते हैं। अखबार में फोटोइया देख के पते नहीं चलता है कि उद्घाटन महामहिमजी कर रहे हैं कि सुबोध भईया।’’ पलटनवा न जाने कब से सुन रहा था, ’’काहे आप लोग सुबोध भईया के पीछे हाथ धो के पड़ गये हैं। झारखंड में कम से कम एक गो नेता तो है। बाकी बाजार में होले-लेले कर रहे हैं। तू हमर पर थूको हम तुम पर थूकेंगे। चल रहा है।’’ बिन बादल बरसात के कीचड़ होते देख कर हरिशंकर बाबू बोलो, ‘‘आपलोग को कोई टौपिक नहीं मिलता है, जब देखिए तब पोलटिक्स का टंगड़ी पकड़ कर बैठ जाते हैं। दशहरा है, दीवाली है, सरस मेला है, खादी मेला है। विकास मेला है। इ सब बात नहीं करिएगा। तो बस पोलटिक्स चैनल खोलके बैठ जाइएगा। कभी बाबा रामदेव का चैनल देखिए। कभी इंडिया टीवी देखिए। देख नहीं रहे हैं, रावण, सीता, लंका, हनुमान सब खोज निकाला है। बिना कपड़ा वाला फैशन टीवी देखिए।’’ अचानक तिवारी जी को कुछो याद आ गया, उन्हंे हँसी आ गयी। वो हँसी रोकते हुए बोले, ‘‘अरे आजकल जानते हैं कि नहीं सुबह-सुबह ज्योतिष चैनल खुल जाता है। एगो कोई पंडितजी बता रहे थे कि नहा धो कर अपना पुराना मोजा दान कीजिए। अब बताइए, जिसको दीजिएगा, दौड़ा के मारेगा कि नहीं! मनोरंजन के लिए हम तो थोड़ा देर सुनते हैं। बड़ा मजा आता है।’’ हरिशंकर बाबू भी हँसे बिना नहीं रह सके, बोले, ‘‘आप भी बीच-बीच में फूलझड़ी छोड़ते रहते हैं।’’ तपाक से पलटनवा बोला, ‘‘ अरे, अरे, याद दीवाली भी पास में है, दीया-बत्ती खरीदे कि नहीं?’’ ठाकुर जी बोले, ‘‘अरे नहीं खरीदे हैं। मेला में खरीदेंगे। जयनन्दूजी वाला मेला लगा है न सुने हैं कि इ बार सरस को खरीद लिए हैं।’’ इस पर हरिशंकर बाबू चुटकी लेते हुए बोले, ‘‘ए भाई चाहे जो हो मेला में जयनन्दू भइवा एक से एक पड़ाका खोज के लाते हैं। देखिएगा, तो देखते रह जाइएगा! करेजवा में तीर धँस जायेगा।’’ ‘‘का बुढ़ारी में इ सब बोलते रहते हैं, हरिशंकर बाबू! अब आपको शोभा नहीं देता‘‘ पलटनवा थोड़ा सकुचाते हुए बोला। हरिशंकर बाबू पलटवार करते हुए बोले, ‘‘का रे पलटनवा हमको बूढ़ा बोलता है रे! आजकल तो जवानी वाला टैबलेट मिलता है। अखबार में विज्ञापन नहीं देखा है का। हमको बूढ़ा बोलता है अरे, जाके जयनन्दूजी के बोल कि अब आपको तबला बजाना अच्छा नहीं लगता। बूढ़ा हो गये मीराजी वाला सितार बजाइये।’’ तिवारीजी हँसी रोकते हुए बोले, ‘‘अभी दीवाली में देर है, अभीए से काहे पड़ाका फोड़ रहे हैं। दीवाली में फोड़िएगा, तो अच्छा लगेगा। इ सब बात छोड़िए। दो-दो हाथ होना चाहिए, दीवाली में। ठाकुरजी ठीक है न। आ जाइए। कोनो डर नहीं है। ठीके है। चलिए अब कल मिलते हैं... फिर इसी चैराहा पर।
रंजन श्रीवास्तव

Saturday, October 24, 2009

मंचों का ठाट

हिन्दस्‍वराज के शताब्‍दी वर्ष पर




सजग, जागरूक भारतीय के मन में एक विचार कौंधता है, गांधीजी आज यदि जिंदा होते, तो उनकी स्थिति क्या होती? गांधीजी यदि आज होते, तो भारतीय राजनीति और करोड़ों जनता की स्थिति क्या होती?

अच्छा हुआ गांधीजी हमारे बीच नहीं हैं। स्वतंत्रता के ध्वजवाहक गांधीजी तो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, स्वतंत्रता के जश्नों में डूबे राजनीतिज्ञों द्वारा नकार दिये गये थे। एक तरपफ सत्ता के लिए भारत के धुरंधर राजनीतिज्ञ तोड़-जोड़ में लगे थे, दूसरी ओर गांधीजी बंद कमरे में एक कुर्सी पर पड़े मायुसी के साथ आँसू बहा रहे थे।

गांधीजी नहीं हैं, तो क्या हुआ। गांधीजी के विचार आज भी जिंदा है, कल भी रहेगा। अफसोस तो इस बात का है कि गांधीजी को, गांधीजी के विचारों को इन राजनीतिज्ञों ने मंचों का ठाठ बना लिया है। मंच पर खड़े होकर गांधीजी के विचारों का बखान करने वाले ये माननीय नेतागण मंच से उतरते ही गांधी को भूल जाते हैं। अपने घरों में या अपने कार्यालयों में गांधीजी की तस्वीरें तो लगाते हैं, पर उसी कमरे में बैठकर गांधीजी के आदर्शो को भूलकर देश को बेचते हैं। ‘‘गांधी का खादी’’ अब गरीबों का नहीं रहा। अपने काले कारनामों को सफेद दिखाने के लिए खादी इन राजनीतिज्ञों के लिए एक लबादा मात्रा बन कर रह गया है।

सत्य और अहिंसा के मार्गदर्शक गांधी के इस देश में हिंसा लता की तरह सारे देश में कैसे फैल गया? गांधीजी के विचारों को असर इन नक्सलियों, अलगाववादियों, देहद्रोहियों पर क्यों नहीं होता? इन संस्थाओं के बौद्धिक मंचों की बुद्धि कुंभकरर्ण की तरह क्यों सोयी पड़ी है? गांधीजी तो राम के भक्त थे, वे स्वयं राम भी थे, जो 14 वर्षों का वनवास खत्म होने के पहले ही लंका पर विजय भी पा ली थी, पर गान्धीजी का वनवास लम्बे समय तक चल सकता है. वैसे भी समय तो इंतजार कराता ही है। हजारों वर्षों तक तप भी करने पड़ते हैं। आशा ही इंसान को जिंदा रखती है। आज अंधेरा है, तो कल उजाला होगा ही। गांधीजी के विचार भले ही आज काल कोठरी में पड़ा है, कल वह निकलेगा। सत्य अहिंसा की खुशबू बिखेरेगा।

अरूण कुमार झा

प्रधान संपादक

Tuesday, April 28, 2009

Friday, April 24, 2009

चुनाव आयोग का पैंतरा

लोक सभा के दूसरे चरण के मतदान समाप्ति के साथ ही पूत के पाँव पालने में ही नजर आने लगे. मतदान का आँकड़ा 50 प्रतिषत पार नहीं कर सका. इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि लोकसभा देष की आधी से भी कम आबादी का प्रतिनिधि करती है. आधी से ज्यादा आबादी के लिए लोकतंत्र कोई मायने नहीं रखती. महीनों पहले से मतदाताओं को जागरुक करने की मुहिम चल रही थी. वोटरों को बूथ तक जाने के लिए प्रेरित किया जा रहा था. बावजूद इसके मतदाता क्यों अपने-अपने घरों में रहे. सोचना यह है कि मतदाता क्या उदासीन थे या फिर डरे हुए. यह भी देखना होगा कि कितने प्रतिषत मतदाता उदासीन होकर नेताओं के प्रति अपने गुस्से का इजहार कर रहे थे और यह भी देखना होगा कि कितने प्रतिषत लोग हिंसा और भय के चलते मतदान करने नहीं आये. कुछ देर के लिए इसको किनारे छोड़ दिया जाये. और जो लोग मतदान के लिए निकले, उनकी हालत क्या थी? आप सोचिए पिछले 50-60 वर्षों में एक आदमी का पहचान पत्र नहीं बन सका. कौन बनाता है, कैसे बनता है कि उसमें अषुद्धियाँ हो जाती है. बाप का नाम गलत, पति का नाम गलत, फोटो गलत कैसे होता है? क्या बेगार में पचहान पत्र बनवाया जाता है? या पहचान पत्र बनवाने की जिनको जिम्मेवारी दी गयी है, वे इसे फालतू समझते हैं? चुनाव आयोग. वाह रे चुनाव आयोग! वह रे तामझाम! महीनों पहले से चुनाव की तैयारियाँ चलती है, सुरक्षा के पक्के इंतजाम यानि कि पुख्ता इंतजाम किया जाता है फिर कहाँ जाता है सुरक्षा का इंतजाम? बुथ पर एक सिपाही तक नहीं. सही कम वल्कि बोगस वोट ज्यादा कैसे पड़ जाता है? सुरक्षा इंतजाम के बीच बुथ कैप्चर कैसे होता है? बुथ लूट कैसे होता है?. इवीएम में तुम भी टीपो, हम टीपें कैसे होता है. महीनों पहले से हजारों की संख्या में पुलिस बल सीआरपीएफ और न जाने क्या-क्या लगे होते हैं. फिर भी देखिए क्या हाल है. अब तो लोग यहाँ तक कहने लगे हैं कि चुनाव आयोग और नक्सलियों की मिलीभगत है, क्योंकि नक्सली को इतना टाइम चुनाव आयोग देता है कि तुम घुम-घुम कर 10 स्थान पर विस्फोट करो. एक हप्ते 10 दिन के बाद दूसरा चुनाव. साधन विहीन नक्सली को इतना समय मिल जाता है कि दूसरी जगह आराम से पहुँच सके. कुछ नहीं लोक तंत्र के नाम पर एक खेल हो रहा है. इससे सरकारी कर्मचारी से लेकर बैंक कर्मचारी, षिक्षक, पुलिस सब बलि का बकरा होते हैं. चुनाव आयोग के पास कोई नीति नहीं है, बस एक कर्मचारी को और नेताओं को डराने का काम करता है. अब तो चुनाव आयोग एक चुटकुला बन गया है. ’’ एक माँ बच्चे को रात में बोलती है, -सो जा, सो जा नहीं, तो चुनाव आयोग केा बोल दूँगी तूझ पे एक मामला दर्ज कर देगा।
लेखक: विजय रंजन