Saturday, October 24, 2009

मंचों का ठाट

हिन्दस्‍वराज के शताब्‍दी वर्ष पर




सजग, जागरूक भारतीय के मन में एक विचार कौंधता है, गांधीजी आज यदि जिंदा होते, तो उनकी स्थिति क्या होती? गांधीजी यदि आज होते, तो भारतीय राजनीति और करोड़ों जनता की स्थिति क्या होती?

अच्छा हुआ गांधीजी हमारे बीच नहीं हैं। स्वतंत्रता के ध्वजवाहक गांधीजी तो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, स्वतंत्रता के जश्नों में डूबे राजनीतिज्ञों द्वारा नकार दिये गये थे। एक तरपफ सत्ता के लिए भारत के धुरंधर राजनीतिज्ञ तोड़-जोड़ में लगे थे, दूसरी ओर गांधीजी बंद कमरे में एक कुर्सी पर पड़े मायुसी के साथ आँसू बहा रहे थे।

गांधीजी नहीं हैं, तो क्या हुआ। गांधीजी के विचार आज भी जिंदा है, कल भी रहेगा। अफसोस तो इस बात का है कि गांधीजी को, गांधीजी के विचारों को इन राजनीतिज्ञों ने मंचों का ठाठ बना लिया है। मंच पर खड़े होकर गांधीजी के विचारों का बखान करने वाले ये माननीय नेतागण मंच से उतरते ही गांधी को भूल जाते हैं। अपने घरों में या अपने कार्यालयों में गांधीजी की तस्वीरें तो लगाते हैं, पर उसी कमरे में बैठकर गांधीजी के आदर्शो को भूलकर देश को बेचते हैं। ‘‘गांधी का खादी’’ अब गरीबों का नहीं रहा। अपने काले कारनामों को सफेद दिखाने के लिए खादी इन राजनीतिज्ञों के लिए एक लबादा मात्रा बन कर रह गया है।

सत्य और अहिंसा के मार्गदर्शक गांधी के इस देश में हिंसा लता की तरह सारे देश में कैसे फैल गया? गांधीजी के विचारों को असर इन नक्सलियों, अलगाववादियों, देहद्रोहियों पर क्यों नहीं होता? इन संस्थाओं के बौद्धिक मंचों की बुद्धि कुंभकरर्ण की तरह क्यों सोयी पड़ी है? गांधीजी तो राम के भक्त थे, वे स्वयं राम भी थे, जो 14 वर्षों का वनवास खत्म होने के पहले ही लंका पर विजय भी पा ली थी, पर गान्धीजी का वनवास लम्बे समय तक चल सकता है. वैसे भी समय तो इंतजार कराता ही है। हजारों वर्षों तक तप भी करने पड़ते हैं। आशा ही इंसान को जिंदा रखती है। आज अंधेरा है, तो कल उजाला होगा ही। गांधीजी के विचार भले ही आज काल कोठरी में पड़ा है, कल वह निकलेगा। सत्य अहिंसा की खुशबू बिखेरेगा।

अरूण कुमार झा

प्रधान संपादक

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